Friday, August 19, 2016

मैं


हं, वहीं दुर, कहीं दुर
मैं खुदसे जब दुर थी
युहीं कहीं मजबुर थी,
देखा करती थी राह
मैं अपने लिए,
कास मैं, अपने पास होती
कास मैं, खुदके साथ होती
और समझलेती,
“मैं कौन हुं, मैं क्या हुं?”
मुस्कुराती, खुदकि परिचय से
लिखसक्ती मैं अपने आत्मशब्द,
और बतासक्ती सबको
“मैं कौन हुं, मै क्या हुं?”
पढ सक्ती अपनी लकिर,
लिखसक्ती अपनी तकदीर,
और सुनासक्ती
“मैं कौन हुं, मै क्या हुं?”
नजाने क्युं मै खुदसे अन्जान थी,
एकही सवाल मेरी जुवान थी,
सवालो मे डुबी जिन्दगी, मेरी पैहचान थी
बडी अजीब सि सवाल मे अट्की हुई मेरी प्राण थी।
तभि तुम आए,
मुस्कुराते,
मुझे मेरी परिचय बताने,
जिन्दगी जिनेको दो शब्द सिखाने,
जो मुझको मुझसे परिचित बनाया,
और मिठे शब्दों मे सम्झाया,
“मैं कौन हुं, मै क्या हुं।”
फिर प्यारसे सम्झाया
“न मैं सवाल हुं, और न जबाब हुं”
न मैं तकदीर कि गुलाम हुं,
न मैं किसि खिची लकिर कि पैगाम हुं,
मैं अलग हूं सबसे अलग,
मैं केवल मैं हुं,
जो अपनी लकिर खुद बनाए, मै वही धार हुं
जो सुन्दरताकी आभाष कराए, मै वही श्रींगार हुं
मै केवल मेरी आकार हुं,
मै केवल मेरी प्यार हुं,
एसे ही तुमने मुझे दिखाया
“मैं कौन हुं, मै क्या हुं।”


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